कविता
ख़ुद को बचा सकती थी वो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कॉल सेंटर से
देर रात
ड्यूटी कर
लौटती जवान लड़की
कैब से उतर कर
नहीं तय सकी
अपने घर का
बीस क़दम का फ़ासला
धुंधले लैम्पपोस्ट तले
जकड़ लिया
चार हाथों ने उसे
बढ़ती चली गई
घर से उसकी दूरी
वह चींख नहीं सकी
पर
याद आए उसे
कुछ पैंतरे
जो देखे थे उसने
इंटरनेट पर
किया था अभ्यास
अपने कमरे में
लड़की ने बटोरा साहस
चाहती थी बचना वह
तभी थप्पड़ मारते
दांत किटकिटाते
गालियों की बौछार करते
चींखा एक दरिंदा-
"लड़की हो कर
मुझसे टकराएगी?
@#@ तेरी ये हिम्मत!"
"लड़की हो कर..."
सुनते ही
टूट गई
उस लड़की की हिम्मत
सारे प्रतिबंध
इन्हीं शब्दों के साथ
उसने सुने थे बचपन से
यदि सारे प्रतिबंध
याद न आते उसे
न दबाव बनाते
उसके कमज़ोर
यानी लड़की होने का
तो उस रात
ख़ुद को बचा सकती थी वो।
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