एक और शाम
- डाॅ शरद सिंह
एक और शाम
उदासी के पोखर में
आ गई डुबोने
नहीं जाएगी
एकांतिक शीत
किसी भी
लिहाफ़ या कम्बल से
न शाॅल, न स्वेटर से
अब कहां
वह उष्मा
जो मिलती
गोद में सिर रखने से
अब वह
गरमाहट कहां
जो शब्दों की चाय संग
उतर जाती
दिल में
बुझ गई
ममत्व की अंगीठी
दब गए अंगारे
त्रासदी की राख तले
अभी तो कार्तिक ही आया
आएगा पूस और माघ भी
जब फेंकेगा हीटर-ब्लोअर
सन्नाटे की ठंडी हवा
कैसे कटेंगी वे
जड़कारे की शामें
दहशत होती है
सोच कर अभी से
ओ शीत !
किसने कहा
कि तुम आना
उनके पास जो
रह गए हैं अकेले
मत दो उन्हें
अवसाद की सज़ा
जितना झेला
वह कम नहीं क्या?
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संस्पर्शी !
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (01 -11-2021 ) को 'कभी तो लगेगी लाटरी तेरी भी' ( चर्चा अंक 4234 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत खूब। बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ..... हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteशब्द शब्द दिल को छूते हुए
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