30 October, 2021

शाप की एक और किस्त | कविता | डॉ शरद सिंह

शाप की एक और किस्त
          - डॉ शरद सिंह

धीरे-धीरे टहलता हुआ
आ रहा जाड़ा,
उदास
अवसादी शाम
घोल रही है सूनापन
आंखों की नमी में

गहराने लगता है
संसार की 
नश्वरता का बोध
और एकाकीपन का
बर्फीला अहसास
मन दौड़ता है 
मकरोनिया चौराहे
या सिविल लाईन की
गहमागहमी की ओर

बेचारा, 
बेवकूफ़ मन!
भीड़ के रेले में
तलाशता ठहराव,
हार-थक कर लौटता
सिमटता
अपने एकांत के खोल में
किसी कछुए की तरह
या 
शापित यक्ष की भांति
हो जाता है 
प्रतीक्षारत 
शापमुक्त होने के लिए

शाप
अभी जाड़े में 
और गहराएगा
जब होते जाएंगे
दिन छोटे
और रातें लम्बी
मानो प्रकृति भी 
देगी सज़ा
यक्षी-मन को
बंद कमरा
भर जाएगा 
सिसकियों से
किसी बीहड़ में
सांय-सांय करती
ध्वनि की तरह
निःशब्द रुदन से
शाप की एक और
किस्त बन कर।
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3 comments:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 01 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सोशल मीडिया कमरे की तन्हाई को भीड़ में बदल दिया है.. फिर भी मन तन्हा है
    सुन्दर अभिव्यक्ति

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