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07 November, 2020

'शरद' ने पूछ लिया आज | ग़ज़ल | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल
'शरद' ने पूछ लिया आज...
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

कभी मिला, न गुमा, उसको  ढूंढते क्यों हो ।
खुद अपने आप से, बेवज़ह जूझते क्यों हो ।

ले जा के छोड़ दे यादों के एक जंगल में 
उस एक राह पे हरदम ही घूमते क्यों हो ।

ना आएगा वो मनाने किसी भी हालत में 
ये जान कर भी हमेशा यूं रूठते क्यों हो ।

वो पंछियों के भरोसे, क्या भाग बांचेगा 
जिसे पता ही नहीं उससे पूछते क्यों हो ।

'शरद' ने पूछ लिया आज अपने ख़्वाबों से 
ज़रा सी  बात  पे हर  बार  टूटते क्यों हो ।
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मित्रो, मेरी यह ग़ज़ल आज 'युवाप्रवर्तक' में प्रकाशित हुई है। इसे आप युवाप्रवर्तक के इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं -

19 September, 2020

ग़ज़ल | कोरोना से बच कर रहिए | डॉ शरद सिंह

मित्रो, कोरोना संक्रमण के बढ़ते आंकड़ों को देखते हुए निवेदन स्वरूप मेरी ग़ज़ल आज #युवाप्रवर्तक में प्रकाशित हुई है...साझा कर रही हूं...
हार्दिक धन्यवाद युवाप्रवर्तक !!!
 ग़ज़ल
कोरोना से बच कर रहिए
         - डॉ शरद सिंह

सिर्फ़ हमारी ग़लती से है कोरोना हम पर भारी।
अगर मानते गाईड लाईन तो न रह पाता ये ज़ारी।

वक़्त अभी भी है, हम सम्हलें, घर से व्यर्थ नहीं निकलें
फिर देखेंगे कोरोना की, हो जाएगी विदा सवारी।

अगर निकलना पड़े काम से, मास्क हमेशा ही पहनें
निश्चित दूरी को अपना कर निभा लीजिए रिश्तेदारी।

"शरद" निवेदन करती है ये, कोरोना से बच कर रहिए
सावधान हों रहें सुरक्षित, दूर रहेगी मुश्क़िल सारी।

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23 May, 2020

दिन कैसा ये दिखलाया - डॉ शरद सिंह, वेब मैगजीन 'युवाप्रवर्तक' में प्रकाशित ग़ज़ल

 web magazine युवा प्रवर्तक ने मेरी ग़ज़ल अपने  दिनांक 23.05. 2020 के अंक में प्रकाशित किया है। 
🚩युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
आप इस Link पर भी मेरी इन रचनाओं को पढ़ सकते हैं ...
http://yuvapravartak.com/?p=33412
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प्रवासी मजदूरों की व्यथा कथा कहती ग़ज़ल...

*दिन कैसा ये दिखलाया*
- डॉ शरद सिंह 

छूट गई है रोज़ी-रोटी, छूट गई छत की छाया।
महानगर के पत्थर दिल ने, दिन कैसा ये दिखलाया।

कर लेते थे घनी-मज़ूरी, सो रहते थे खोली में
हमने वो सब किया, जो क़िस्मत ने हमसे था करवाया।

गांव भेजते थे कमाई का, आधा पैसा हम हरदम
कई दफ़ा तो भूखे रहकर, हमने भारी वज़न उठाया।

घरवाली जब साथ आ गई, मुनिया छोटू भी जन्में
हमने भी मुफ़लिस में जीता, छोटा-सा संसार बसाया।

जिन शहरों को शहर बनाया, जिनको था हमने अपनाया
उन्हीं शहरवालों ने हमको, पल भर में ही किया पराया।

आज गांव की ओर हैं वापस, भारी मन का बोझ उठाए
यही ग़नीमत राह-राह में, लोगों ने अपनत्व दिखाया।
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