बारिश
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
बूंदें गिरती हैं
मेरे सिर पर
और उलझतीं हुई
बालों में
सरक जाती हैं धीरे से
मेरी गर्दन
और कांधों पर
कुछ बूंदें
भिगोती हैं कुर्ते को
और कुछ
जा पहुंचती हैं
धड़कन के पास
गोया यह जांचने
कि उसमें
अभी भी
वह रफ़्तार है या नहीं
या फिर
देह पर उतर कर
सूंघना चाहती हैं
उस गंध को
जो महकती है कस्तूरी-सी
किसी के प्रेम में
पागल बूंदें
नहीं जानतीं
कि प्रेम
अब नहीं रहा वैसा
जैसा देखा है उसने
चातक में
चकोर में
चकवा में,
इंसानी प्रेम
ढल गया है अब
जाति में, धर्म में,
ग्रीनकार्ड में
पागल बूंदें
पिघला नहीं सकतीं
उदासी के कोलोस्ट्रोल को,
न ही कर सकती हैं
इसका अनुभव कि
कैसे तंग हो रही हैं सांसें
शुद्ध प्रेम के बिना
वर्जित क्षेत्र में प्रविष्ट
नासमझ बूंदें
धड़कनों को समझ पाने से पहले
सूख जाएंगी
पा कर देह की तपन
सील कर रह जाएगी
दिल की
अधखुली किताब
जितना भिगो रही है
मुझे बारिश
खुद भी भीग जाएगी
मुझसे मिल कर
यक़ीनन।
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दिल का हाल दिल वाला ही जान सकता है
ReplyDeleteबहुत खूब!
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 23 सितंबर 2022 को 'तेरे कल्याणकारी स्पर्श में समा जाती है हर पीड़ा' ( चर्चा अंक 4561) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
मन के भावों को बहुत खूबसूरती से उकेरा है ।
ReplyDeleteबहुत खूब कहा शरद जी, कि..पागल बूंदें
ReplyDeleteनहीं जानतीं
कि प्रेम
अब नहीं रहा वैसा
जैसा देखा है उसने
चातक में
चकोर में
चकवा में...शानदार
बूँदे तो तरल है जो बह गई या उष्णता में सूख गई, पर मन के झंझावात कहा बहते और ढहते हैं।
ReplyDeleteहृदय को आलोडित करता सृजन।
बारिश की बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआदरणीया मैम , पुनः हृदय को झकझोरने वाली रचना । यद्यपि वर्षा वह ऋतु मानी जाती है जो मन के दुख, अवसाद और क्लेश का नाश कर , मन को पुनः आनंद और उल्लास से भर देती है परंतु आज का आधुनिक मानव जो प्रकृति और संबंधों के प्रति संवेदनहीन हो चुका है , कैसे इस सहज आनंद का अनुभव कर पाएगा ।
ReplyDeleteजितना भिगो रही है
मुझे बारिश
खुद भी भीग जाएगी
मुझसे मिल कर
यक़ीनन। मर्मस्पर्शी ।