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- डॉ शरद सिंह
सर्द रातों में जले बन के अलाव जो
वो नहीं थे किसी अख़बार के रद्दी पन्ने
उनमें कुछ ख़त थे
थीं उनमें हसीं तस्वीरें
उनमें कुछ हर्फ़ थे,
कुछ जुमले,
कई वादे भी
ज़िंदगी मिल के बिताने के
इरादे भी।
मैंने खुद को न बचाया था
कभी खुद के लिए
इसलिए तुम थे उनमें भी बहुत ज़्यादा से
और मैं कम थी हमेशा की तरह,
जबकि काग़ज़ वो
निकले थे, मेरे माज़ी के तहख़ाने से
अब है खाली-सा वही तहख़ाना
सिर्फ़ इक दर्द बचा पहचाना
जल चुके हैं वो सभी काग़ज़ अब तो
फिर भी यहां
राख में छोड़ गए आग के जो भी किस्से
देख लो,
आज वो आए हैं मेरे ही हिस्से।
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#मेरीकविताए_शरदसिंह #राख #अलाव #काग़ज़ #ख़त #तहखाना
ReplyDeleteजल चुके हैं वो सभी काग़ज़ अब तो
फिर भी यहां
राख में छोड़ गए आग के जो भी किस्से
देख लो,
आज वो आए हैं मेरे ही हिस्से।
.....बहुत-बहुत सुंदर रचना। साधुवाद व शुभकामनाएं आदरणीया।
हार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🙏🌹🙏
Deleteमेरे ब्लॉग्स पर आपका सदैव स्वागत है 💐
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 07 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार यशोदा अग्रवाल जी,
ReplyDeleteयह मेरे लिए सुखद अनुभूति है कि आपने मेरी रचना को ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शामिल किया है।
पुनः आभार 🙏🌹🙏
मार्मिक लेखन
ReplyDeleteआपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार विभा रानी श्रीवास्तव जी 🙏🌹🙏
Deleteमेरे ब्लॉग्स पर सदैव आपका स्वागत है 💐
हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय दी।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक धन्यवाद अनीता सैनी जी 🙏🌹🙏
Deleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अभिलाषा जी 🌹🙏🌹
Deleteअति सुन्दर रचना दिल को छू गई
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण ।
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