17 May, 2024

लेडीज़ लापता ही हैं | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

लेडीज़ लापता ही हैं
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अपवाद छोड़ दें
फिर बताएं-
क्या देखा है कभी
लेडीज़ को
सुबह-सवेरे 
घर की बाहरी दहलान
या बॉल्कनी में
आराम से 
चाय की चुस्कियां लेते
और अख़बार पढ़ते?

क्या देखा है कभी
लेडीज़ को 
किसी चाय-पान के ठिए पर
गप्पें मारते
ठहाके लगाते?

क्या देखा है कभी
लेडीज़ को
सड़क पर निडर
बेख़बर अकेली घूमते?

क्या देखा है कभी
लेडीज़ को
यौनहिंसा के आंकड़ों से
बाहर होते?

क्या देखा है कभी
लेडीज़ को
समाज में धिक्कारा न जाते
जो धोखा देकर
बना दी गई हों अविवाहित मां?

क्या देखा है कभी
लेडीज़ को
जो एक बार बेच दी गईं
जिस्म के बाज़ार में
फिर भी बसा सकीं हों
घर-परिवार?

उन लेडीज़ की तो
बात ही मत करो
जो लापता हैं 
मानव तस्करी में...

दरअसल,
लेडीज़ लापता हैं
अपने ही घर में
अपने ही समाज में
अपने ही लोगों के बीच

आज से नहीं,
सदियों से
लेडीज़ लापता ही हैं।
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