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31 December, 2022
ग़ज़ल | वक़्त गया तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
30 December, 2022
ग़ज़ल | क्या कीजिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
19 December, 2022
शायरी | दग़ा का दाग़ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
17 December, 2022
शायरी | फिर कहो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
13 December, 2022
शायरी | मावठ की बारिश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
12 December, 2022
शायरी | नहीं देखा किसी ने | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
07 December, 2022
शायरी | तौबा कर के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
02 December, 2022
शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
03 November, 2022
कविता | मात्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कविता / मात्र...
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
प्रेम की खाद
और
मीठे बोलों का जल
सिवा इनके
नहीं चाहिए
मन के पौधे को
और कुछ भी।
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कविता | मात्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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31 October, 2022
ग़ज़ल | ठंड | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
28 October, 2022
ग़ज़ल | शायरी | ये भी कोई जीना है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
ग़ज़ल / शायरी
दिल पर पत्थर रख कर जीना,
ये भी कोई जीना है?
कोई मुझे बताये आख़िर
कितने आंसू पीना है?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
09 October, 2022
मुक्तक | पूनम का चांद | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अमृत वर्षा कर रहा है, पूनम का चांद।
मन को हर्षित कर रहा है, पूनम का चांद।
शारदीय इस रात्रि की हुई कालिमा दूर
जग को जगमग कर रहा है,पूनम का चांद।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
#शरदपूर्णिमा
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#DrMissSharadSingh
#डॉसुश्रीशरदसिंह
08 October, 2022
कविता | वज़ूद | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
01 October, 2022
कविता | प्रेम करूंगी यक़ीनन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
30 September, 2022
कविता | धूप बारिश के बाद की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
धूप बारिश के बाद की
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कुछ अधिक
गरमाने लगी है
धूप
बारिश के बाद की
नमी, उमस
और उष्णता से भरी धूप
कर देती है व्याकुल
देहरी लांघते ही
धूप का काम है
तपना
वह तप रही है,
झुलसा रही है
अनावृत चेहरों को
चेहरे,
अपरिचित चेहरे
धूप के लिए भी
और
मेरे लिए भी,
भीड़ से गुज़रते हुए
हम नहीं देख पाते
चेहरों को
ठीक से
और देख भी लें
तो नहीं पढ़ पाते
उनकी अहमियत को
धूप भी नहीं पढ़ पाती
दिलों को
वरना
कर के महसूस
मेरे भीतर के
विसूवियस
मुझे
और न तपाती।
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24 September, 2022
रात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता
22 September, 2022
कविता | बारिश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
10 September, 2022
कविता | इन दिनों | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
07 September, 2022
कविता | तुमने तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
03 September, 2022
ग़ज़ल | धूप बारिश की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
#अर्ज़कियाहै - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
हार्दिक धन्यवाद #युवाप्रवर्तक
यह ग़ज़ल आप इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं - https://yuvapravartak.com/69213/
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ग़ज़ल : धूप बारिश की
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
उसकी यादों सी सुनहरी है, धूप बारिश की।
फिर भी तन्हा है, इकहरी है, धूप बारिश की।
अपने हालात के बारे में सोचती रहती
एक गुमसुम सी दुपहरी है, धूप बारिश की।
उसने पैरोल पे छोड़ा है बादलों को अभी
खुद ही जज, खुद ही कचहरी है, धूप बारिश की।
सीलनें छन के चली जाएंगी बिस्तर से सभी
क्योंकि झीनी सी मसहरी है, धूप बारिश की।
छत से, मुंडेर पे, दीवार से कांधे पे "शरद"
इक फुदकती सी गिलहरी है, धूप बारिश की।
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25 August, 2022
ग़ज़ल | उसकी यादें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
22 August, 2022
मुक्तक | दर्द हमेशा सच्चा है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
20 August, 2022
आज फिर | ग़ज़ल | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
14 August, 2022
गीत | हर घर तिरंगा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
21 July, 2022
ग़ज़ल | हकीक़त से हमने बुनी है कहानी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
11 July, 2022
ग़ज़ल | अश्क़ अपने | डॉ (सुश्री) शरदसिंह
02 July, 2022
ग़ज़ल | प्यार की बातें करो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
Ghazal - Nafraton Ke Daur Me .. Dr (Ms) Sharad Singh
ग़ज़ल
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
नफ़रतों के दौर में मनुहार की बातें करो।
एकता की, मित्रता की, प्यार की बातें करो।
न मिले मौक़ा यहां फ़िरक़ापरस्ती के लिए
आपसी सद्भाव की, सत्कार की बातें करो।
हम अमन औ शांति के पथ पर हमेशा ही चलें
विश्व में आतंकियों के हार की बातें करो।
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25 June, 2022
ग़ज़ल | रिवायतें अब बदल रही हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
11 June, 2022
ग़ज़ल | यूं लगेगा कि प्यार करता है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
04 June, 2022
कविता | लाखा बंजारा झील | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | युवा प्रवर्तक
20 May, 2022
ग़ज़ल | यादों को उसकी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
18 May, 2022
कविता | वस्त्र के भीतर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नेशनल एक्सप्रेस
13 May, 2022
ग़ज़ल | मंज़र सारे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
12 May, 2022
कविता | मेरी भावनाएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
09 May, 2022
कविता | बहुत छोटा है प्रेम शब्द | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
29 April, 2022
कविता | @कंडीशन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
28 April, 2022
कविता | वह चूहानुमा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कविता
चूहानुमा
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक विशेषता है
मनुष्य योनि में हो कर भी
चूहा होना,
वह भी
जहाज का चूहा
जो जहाज के
डूबने की
आशंका में ही
छोड़ देता है
जहाज को
मुझे नहीं लगता
कि कर सकता है ऐसा
मनुष्य
यदि उसके भीतर है
सच्ची मनुष्यता
होने को तो ...
सुकरात को
विष का प्याला
दिया था मनुष्यों ने ही
ब्रूटस भी मनुष्य ही था
जिसने सीजर के पीठ पर
भोंका था छुरा
वह मनुष्य ही था
जिसने
ज़हर पिलाया मीरा को
और परित्याग कराया सीता का
वह मनुष्य ही था
जिसने
बापू गांधी के सीने मेंं
उतार दी गोलियां
और करा दी थीं हत्याएं
जलियांवाला बाग में
अवसरवादिता
लिबास बदलती है
और ढूंढ लेती है
नित नए आका
कभी सत्ता
तो कभी जिस्म
तो कभी ताक़त
कभी ये सभी
ज़्यादातर राजनीति में
लेकिन अब
चूहानुमा
मानवीय नस्ल
राजनीति से
आ गई है
प्रेम में भी,
छोड़ जाती है साथ
संकट की घड़ी में
प्रेम रह जाता है
हो कर आहत
एक
डूबे जहाज की तरह
कृतघ्न चूहा क्या जाने
रच देते हैं प्रेम का इतिहास
टूटे /डूबे जहाज भी
और निभाते हैं प्रेम
अनंत गहराइयों में
अनंत काल तक।
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23 April, 2022
कविता | अपराध | डॉ शरद सिंह | प्रजातंत्र
10 April, 2022
ग़ज़ल | हमको जीने की आदत है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत
"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 10.04.2022 को "हमको जीने की आदत है" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल | हमको जीने की आदत है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत
अपने सुघड़ उजालों को तुम, रक्खो अपने पास।
हमको जीने की आदत है, काले दिन, उच्छ्वास।
चतुर शिकारी जाल डाल कर बैठा सारी रात
सपनों को भी लूट रहा है, बिना दिए आभास।
बढे़ दाम की तपी सलाखें, दाग रही हैं देह
तिल-तिल मरता मध्मवर्गी, किधर लगाए आस।
बोरी भर के प्रश्न उठाए, कुली सरीखे आज
संसद के दरवाज़े लाखों चेहरे खड़े उदास।
जलता चूल्हा अधहन मांगे, उदर पुकारे कौर
तंग ज़िन्दगी कहती अकसर-‘तेरा काम खलास!’
अनावृष्टि-सी कृपा तुम्हारी, और खेतिहर हम
धीरे-धीरे दरक चला है, धरती-सा विश्वास।
सागर बांध लिया पल्लू में, और पोंछ ली आंख
मुस्कानें फिर ओढ़-बिछा लीं, बना लिया दिन ख़ास।
तड़क-भड़क की इस दुनिया में, करें दिखावा लोग
फिर भी अच्छा लगता हमको, अपना फटा लिबास।
यही धैर्य का गोपन है जो, रहे ‘शरद’ के साथ
आधा खाली मत देखो, जब आधा भरा गिलास।
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#नवभारत
09 April, 2022
मुक्तक | धूप को धूप जो नहीं लगती | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
02 April, 2022
सुप्रभात !!! - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
31 March, 2022
27 March, 2022
मेरी तन्हाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
21 March, 2022
विश्व कविता दिवस | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
#विश्व_कविता_दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷
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कविता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
भावनाओं की तरंगों पर
सवार
शब्द-यात्री
है वह,
जिसके चरण पखारते हैं
विचार
और चित्त में बिठाते हैं
रस, छंद, लय, प्रवाह
जिसका अस्तित्व है
मां की लोरी से
मृत्युगान तक
जो है भरती
श्रम में उत्साह
जो दुखों को
कर देती है प्रवाहित
दोने में रखे
दीप के समान
वह है तो वेद हैं
वह है तो महाकाव्य हैं
उसके होने से
मुखर रहते हैं भारतीय चलचित्र,
वह रंगभेद के द्वंद्व में
गायन बन कर
श्रेष्ठता दिलाती है
अश्वेतों को,
वह वैश्विक है
क्योंकि
मानवता है वैश्विक
और वह है उद्घोष
मानवता की।
वह नाद है, निनाद है
प्रेम है, उच्छ्वास है
वह कविता ही तो है
जो प्रेमपत्रों से
युद्ध के मैदानों तक
चलती रही साथ।
जब लगता है खुरदरा गद्य
तब रखती है
शीतल संवेदनाओं का फ़ाहा
कविता ही,
कविता समग्र है
और समग्र कविता है।
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#कविता #विश्वकवितादिवस #मेरीकविताएं
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20 March, 2022
अंत नहीं शुरुआत नहीं | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 20.03.2022 को "अंत नहीं शुरुआत नहीं" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
अंत नहीं शुरुआत नहीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
कैसे लिख दें राम-कहानी, लिखने वाली बात नहीं।
नभ-गंगा हैं भीगी आंखें, पानी भरी परात नहीं।
समय-डाकिया लाया अकसर, बंद लिफाफा क़िस्मत का
जिसमें से बाधाएं निकलीं, निकली पर सौगात नहीं।
तलवों में है दग्ध-दुपहरी, माथे पर झुलसी शामें,
जी लें जिसमें पूरा जीवन, नेहमयी वह रात नहीं।
तेज हवा ने तोड़ गिरा दी, लदी आम की डाल यहां
अपना आपा याद रख सके, इतनी भी अभिजात नहीं।
उमस रौंदती है कमरे को, तनहाई जिसमें ठहरी
ऊंघ रही दीवारें अब तक, सपनों की बारात नहीं।
नुक्कड़ के कच्चे ढाबे में, उपजे प्यालों की खनखन
मुक्ति दिला दे जो विपदा से, ऐसा भी संधात नहीं।
अपना भावी, निरपराध ही, दण्ड झेलता दिखता है
लिखने को अक्षर ढेरों हैं, क़लम नहीं, दावात नहीं।
शबर-गीत हैं शर-धनुषों में, कपट नहीं, छल-छद्म नहीं
भोले-भाले भील-हृदय में, चुटकी भर प्रतिघात नहीं।
टूटे तारे के संग ढेरों सम्वेदन जुड़ जाते हैं
बिना राह से फिसले लेकिन, होता उल्कापात नहीं।
शिविर समूहों में खोजा है, खोजा है अख़बारों में
मिले हज़ारों लेखन-जीवी, मिला नहीं हमज़ात कोई।
खण्ड काव्य है, महाकाव्य है और न कोई गीत-ग़ज़ल
चूड़ी जैसी पीर हमारी, अंत नहीं, शुरुआत नहीं।
गिर पड़ते हैं अर्ध्य सरीखे, अंजुरी जैसी आंखों से
‘शरद’ आंसुओं को पीने में, इतनी भी निष्णात नहीं।
(निष्णात = माहिर)
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