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08 October, 2022

कविता | वज़ूद | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वज़ूद
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

सफ़र में हूं
कि है कांधे पे
याद का
कांवर

पता नहीं
पहुंचूंगी कहां
काशी 
या
मगहर 

ढूंढना बाद मेरे
लिक्खे हुए
पन्नों में तुम्हें
प्रेम का शब्द भी
दुबका हुआ
मिल जाएगा

छूट जाने के लिए
ख़ुद से ही
शरमाएगा

पर करूं क्या
कि...

नहीं, और तो
कुछ भी है नहीं
जो
वसीयत में लिखूं
और छोड़ जाऊं यहां

मेरा वज़ूद भी
तुमसे तो
भूल जाएगा।
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4 comments:

  1. मन के सौदे अजीब होते हैं।इनकी वसीयत भी तो मुमकिन नहीं है।

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