रात
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
रात आ गई है
मेरे कांधे पर
सिर रख कर
सोने ,
जानती है
मुझे तो है जागना
ताज़िन्दगी
गिनते हुए
पहर के पहाड़े
यादों के सिरहाने
बैठ कर
अब वो ही देखेगी
मेरे हिस्से के ख़्वाब
ओढ़ेगी चादर
ख़्वाहिशों की
भोर होने तक
और मेरी आंखें
पढ़ती रहेंगी
वक़्त की किताब
पन्ने-दर-पन्ने।
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लाजबाब
ReplyDeleteआदरणीया मैम , पीड़ा और उदासीनता के भाव समेटी रचना । भावपूर्ण, सदा की तरह ।
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