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30 December, 2022

ग़ज़ल | क्या कीजिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल
नफ़सियाती* दौर है, क्या कीजिए।
ज़िन्दगी बे-तौर**  है, क्या कीजिए।
दिख रहा जो, वो नहीं, हरगिज़ नहीं
मसअला कुछ और है, क्या कीजिए।
एक  दल उसको  सुकूं  देता   नहीं
वो  बदलता   ठौर  हैं, क्या कीजिए।
बदज़ुबानी का फ़कत मक़्सद नहीं
चाहता   वो  ग़ौर   है, क्या कीजिए।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

*नफ़सियाती= मानसिक, सायकोलॉजिकल
**बे-तौर = बेढब, अस्तव्यस्त

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