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#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh
पृष्ठ
26 December, 2021
लड़कियां किस्म-किस्म की | डॉ सुश्री) शरद सिंह | कविता | नवभारत
24 December, 2021
शीत | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता
19 December, 2021
अपशब्द | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत
16 December, 2021
रात | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
11 December, 2021
ग़ज़ल | दर्द का रंग | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
28 November, 2021
पाषाण | कविता | डॉ शरद सिंह
27 November, 2021
कौन पैरवी करता मेरी | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
24 November, 2021
सियासत का लहू | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
इक हक़ीक़त की तरह
झूठ वो कहता है सदा,
उसकी रग - रग में
सियासत का लहू बहता है
- डॉ शरद सिंह
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18 November, 2021
वह | कविता | डॉ शरद सिंह
16 November, 2021
बेअसर | कविता | डॉ शरद सिंह
11 November, 2021
झुकती पृथ्वी | कविता | डॉ शरद सिंह
झुकती पृथ्वी
- डॉ शरद सिंह
किसी प्रेमिका
या
नववधू सी
प्रेम के
संवेग से
भर कर नहीं,
मां के ममत्व से
उद्वेलित हो कर नहीं
पृथ्वी
घूम रही है
झुकी-झुकी
अपनी धुरी पर
कटते जंगलों
सूखती नदियों
गिरते जलस्तरों
बढ़ते प्रदूषण
और
ओजोन परत में
हो चले छेदों पर
आंसू बहाती हुई
घबराई-सी।
पृथ्वी
घूम रही है
अपने कक्ष में
हादसों को देखती
झेलती अपराधों को
नापती संवेदना के
गिरते स्तर को
नौकरी के हाट में बिकते
युवाओं को
और सूने घर में
छूट रहे बूढ़ों को
निर्माण से नष्ट की ओर
बढ़ती व्यवस्थाओं पर
सुबकती हुई
हिचकियां लेती
लापरहवाहियों के
ब्लैक होल की ओर बढ़ती
पृथ्वी
अब और
झुक जाना चाहती है
हम इंसानों की
करतूतों पर शरमाती हुई।
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09 November, 2021
वे बच्चे | कविता | डॉ शरद सिंह
07 November, 2021
हादसे | कविता | डॉ शरद सिंह
04 November, 2021
तनहाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह
01 November, 2021
रीती हुई मुट्ठियां | कविता | डॉ शरद सिंह
31 October, 2021
एक और शाम | कविता | डॉ शरद सिंह
30 October, 2021
शाप की एक और किस्त | कविता | डॉ शरद सिंह
Truth of life | Poetry | Dr (Miss) Sharad Singh
28 October, 2021
क़िस्से | कविता | डॉ शरद सिंह
23 October, 2021
शब्द-शक्ति | कविता | डॉ शरद सिंह
20 October, 2021
शरद का चांद | कविता | डॉ शरद सिंह
17 October, 2021
अब तो चाहिए | कविता | डॉ शरद सिंह
16 October, 2021
अनजाना मुस्तक़बिल | ग़ज़ल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
14 October, 2021
वह लड़का | कविता | डॉ शरद सिंह
12 October, 2021
डॉ शरद सिंह सागर की 2021 की 'पिंक सागर' की 100 शक्तिशाली महिलाओं में
10 October, 2021
सयानी लड़की | कविता | डॉ शरद सिंह
09 October, 2021
असंभव-सा संभव | कविता | डॉ शरद सिंह
असंभव-सा संभव
- डॉ शरद सिंह
किसी भी समय
उठने लगती हैं
सीस्मिक तरंगें
कांपने लगती है
भावनाओं की सतह
सरकने लगती हैं
विश्वास की
टेक्टोनिक प्लेट्स
मेरी सांसोंं का
सिस्मोमीटर
निरंतर बनाता है ग्राफ
धड़कन के
रिक्टर स्केल पर
और करता है कोशिश
नापने की
पीड़ा से उपजे
भूकंप की तीव्रता को
दौड़ती है तेजी से सुई
और
लॉगरिथमिक प्वाइंट
दर्शाता है तीव्रता
कभी सात
तो कभी दस
यह असंभव-सा
संभव,
करता है
विचलित मुझे कि
विध्वंस के
अंतिम बिन्दु पर
पहुंच कर भी
बची हुई है
मेरे अस्तित्व की धरती
ये तो हद है-
सोचने लगे हैं
मेरी पीड़ा के
सिस्मोलॉजिस्ट
हैरत तो होगी ही
महाविनाश से
गुज़र कर भी
कोई बचता है भला?
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08 October, 2021
अपराधी | कविता | डॉ शरद सिंह
04 October, 2021
छापामार उदासी | कविता | डॉ शरद सिंह
03 October, 2021
सपन कपासी | नवगीत | डॉ शरद सिंह
नेह पियासी
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
मीलों लम्बी
घिरी उदासी
देह ज़रा-सी।
कुर्सी, मेजें,
घर, दीवारें
सब कुछ तो मृतप्राय लगें
बोझ उठाते
अपनेपन का
पोर-पोर की तनी रगें
बंज़र धरती
नेह पियासी
धार ज़रा-सी।
गलियां देखें
सड़के घूमें
फिर भी चैन न मिल पाए
राह उगा कर
झूठे सपने
नई यात्रा करवाए
रोती आंखें
सपन कपासी
रात ज़रा-सी।
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02 October, 2021
कौन हैं गांधी | कविता | डॉ शरद सिंह
30 September, 2021
डॉ शरद सिंह की कविता "दूर, बहुत दूर" का पंजाबी में अनुवाद प्रकाशित
मेरी कविता "दूर, बहुत दूर" का पंजाबी अनुवाद "प्रतिमान" जुलाई-सितंबर 2021अंक में प्रकाशित हुआ है जिसके लिए मैं पंजाबी एवं हिन्दी के चर्चित साहित्यकार डॉ अमरजीत कौंके की अत्यंत आभारी हूं🙏
हिन्दी भाषी मित्रो के लिए अपनी मूल हिन्दी कविता भी यहां दे रही हूं-
दूर, बहुत दूर
- डॉ शरद सिंह
घर की क़ैद से निकल कर
दूर, बहुत दूर निकल जाने की इच्छा
बलवती होने लगी है
इन दिनों
अख़बारों की
कराहती सुर्खियों से दूर
मृतक आंकड़ों की
चींखों से दूर
सांत्वना के निरंतर
दोहराए जाने वाले
बर्फीले शब्दों से दूर
अस्पताल परिसर की
यादों से दूर
बंद ग्रिल के पीछे
कोविड वार्ड के
ख़ौफ़नाक अहसास से दूर
आधी रात के बाद
फ़ोन पर आई
उस हृदयाघाती सूचना से दूर
शासन तंत्र की
ख़ामियों से दूर
घोषणाओं की
झूठी उम्मींदों से दूर
जनता की
आत्मकेन्द्रियता से दूर
प्रजातंत्र के राजा की
नींदों से दूर
कहीं दूर...
बहुत दूर
जहां सागौन का हो जंगल
संकरी पगडंडी
एक पतली नदी
एक झरना
एक कुण्ड
देवता विहीन
प्राचीन मंदिरों के अवशेष
बंदरों की हूप
और पक्षियों की आवाज़ें
वहां
जहां मैं प्रकृति में रहूं
और प्रकृति मुझमें
न कोई बनावट
न धोखा, न छल
न पंजा, न कमल
ले सकूं खुल कर सांस
प्रदूषण रहित हवा में
न ढूंढना पड़े जीवन
वैक्सीन या दवा में
शायद तब मैं
जी लूंगी
एक बार फिर
जी भर कर।
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27 September, 2021
कविता एक नदी | कविता | डॉ शरद सिंह
25 September, 2021
यही तो होता है | कविता | डॉ शरद सिंह
- डॉ शरद सिंह
कुछ शब्दों को
पकड़ते ही
पसीजने लगती है हथेली
फड़कने लगती हैं
धमनियां
धौंकनी बन जाता है
हृदय,
हो जाता है तीव्रतर
स्पंदन
चौड़े हो जाते हैं नेत्र
कांपते हैं होंठ
ठिठक जाती हैं
ध्वनियां,
कुंद हो जाती है बुद्धि
जाग उठती है हठधर्मिता
बढ़ जाती है
वर्चस्व की भावना
वे मायावी शब्द
जकड़ लेते हैं
अपने इंद्रजाल में
फिर नहीं दिखता
उनके सिवा कुछ भी
बढ़ जाती है आत्ममुग्धता
यही तो होता है
प्रेम,
युद्ध
और
राजनीति में,
सब कुछ
समझते हुए भी
समझ से परे
नासमझी की हद तक।
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