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16 October, 2021

अनजाना मुस्तक़बिल | ग़ज़ल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल 
अनजाना  मुस्तक़बिल
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

निपट  उदासी   बैठी  है  घर  डेरा  डाले
हर  कोने  में  सूनेपन  के   मकड़ी जाले

भरी   दोपहर  अंधियारा  छाया लगता है
या  फिर  दिन  ही  हो बैठे हैं काले-काले

उसकी  बातें   बसी   हुई  हैं  दीवारों   में
इक-इक लम्हा अब तो उसके हुआ हवाले

कब  तक कोई  खुद के  आंसू को  पोंछेगा
तनहा दिल क्या तनहाई को खाक सम्हाले

अनजाना  मुस्तक़बिल*  बैठा  दरवाज़े पर
पलक झपकते  चले गये  दिन  देखे-भाले
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*मुस्तक़बिल = भविष्य
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1 comment:

  1. एकाकीपन की दक्ष व्यंझना ..।।।

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