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07 November, 2021

हादसे | कविता | डॉ शरद सिंह

हादसे
         - डॉ शरद सिंह

एक पेंसिल शार्पनर 
ही तो हैं हादसे
जो बनाते रहते हैं नुकीला
इस ज़िन्दगी को
 
नोंक 
बन जाए चुभने लायक
तो चलती रहती है
अजेय
कुछ देर

भोथरी हो जाए
तो जीने के प्रयासों की 
लिखावट
हो जाती है
भद्दी, बदसूरत
जिसे कोई
पढ़ना न चाहे

और
टूट जाए नोंक 
तो एक और हादसा
छील कर
उतार देता है
आत्मा की पर्तें भी

पेंसिल के अंतिम सिरे तक
जो बच रहता है
पी जा चुकी
सिगरेट के टोटे सा
मृत्यु के जूते तले
कुचले जाने तक
मिट्टी मिश्रित ग्रेफाईट की 
काली सींक की तरह
आशाओं की 
नर्म लकड़ी में दबी
लिखने और टूटने के
संघर्ष में
हादसों से
छिलती रहती है ज़िंदगी।
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4 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (08 -11-2021 ) को 'अंजुमन पे आज, सारा तन्त्र है टिका हुआ' (चर्चा अंक 4241) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. वाह ! अद्भुत जीवन दर्शन से युक्त बहुत ही गहन प्रस्तुति ! अति सुन्दर !

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  3. यथार्थ अभिव्यंजना!

    कवि हो , बढ़ो आगे ,हताशा पर विजय पाओ !
    जो उत्प्रेरक हो , उद्वेलक हो ऋतु ऐसा विषय लाओ !!

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