अब तो चाहिए...
- डॉ शरद सिंह
बहुत थकान होती है -
उधार के रिश्तों को
जीते हुए,
जैसे ओढ़ी हुई मुस्कान
थका देती है होंठों को
गालों को
और आंखों की कोरों को
हां,
बहुत थकान होती है -
जब रिश्तों को जीते हैं
रिश्तों के बिना
जीत की उम्मींद में
फेंके हुए पासों की तरह।
और थक-हार कर
अकसर सोचता है मन
ये ज़िन्दगी
थकी-थकी सी है
अनुबंधों के लिबास तले
ओह, अब तो चाहिए
एक सुई या पिन
जिससे उधेड़ा जा सके
इस लिबास की सीवन को।
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अनुबंध-वसन परित्यज्य नहीं , देखो जो जीवन यहीं कहींःः
ReplyDeleteइक गीत रचो सारंगी ऋतु ! कह दो ऐसा ना , नहीं-नहीं !
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (18 -10-2021 ) को 'श्वेत केश तजुर्बे के, काले केश उमंग' (चर्चा अंक 4221) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव