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14 October, 2021

वह लड़का | कविता | डॉ शरद सिंह

वह लड़का
          - डॉ शरद सिंह
वह 
जीवन के नाम पर
एक 
जीता-जागता धोखा

अपनी मां की 
हड़ीली कमर पर
कैंया चढ़ा
उम्र दो साल
वज़न कुल सवा चार किलो
पसलियों से चिपकी चमड़ी
लोहार की धौंकनी-सी
चलती सांसें
ज़रिया है उसका वज़ूद
भीख मांगने का
उसकी मां के लिए,
उसके बाप के लिए,
उसके 
बिज़ूका भाई-बहनों के लिए

अपनी बड़ी-बड़ी आंखें से
दुनिया को देखता
कंधों से लटकी
फटी बुशर्ट 
कटे पंखों सी लटकी
तन नहीं ढांपती उसका
चीथड़े-सी निकर
कूल्हे भी रखती उघारे
धूप, बारिश, जाड़ा
गुज़ारेगा वह इसी तरह,
जब तक रहेगा जीवित

उसे पता नहीं
वह एक
बेहतरीन शो-पीस 
बन सकता है
अगर किसी दिन
किसी को 
कुपोषण के 
विज्ञापन के लिए 
उसकी जरूरत पड़ी,
उसका पिचका-भुखाया पेट 
और एक-एक पसलियां 
चमक उठेंगी 
विशालकाय होर्डिंग्स पर

उसे एक दाना नहीं,
पर मिल जाएगा 
विज्ञापन करने वालों को 
करोड़ों का अनुदान
किसी भी देशी-विदेशी संस्था से,
और वह लटका रहेगा 
अपनी मां की 
हड़ीली कमर पर 
इसी तरह 
अपनी आखिरी सांस तक,
सांसे 
जो शायद कुछ महीने 
या साल भर 
और चल जाएं 
या सिमट जाएं कुछ ही दिन में

फ़िलहाल
उसे सभी ने देखा होगा 
अपने अपने शहर में।
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