मन का प्लेनेटेरियम
- डॉ शरद सिंह
घने, काले बादलों से
आच्छादित आकाश
खो देता है नीलापन
तब कहां बिसात
सूरज, चांद, तारों की
कि दिखा सकें
अपना चेहरा
मगर
मन के
प्लेनेटेरियम में
दिनदहाड़े
चमकते, धधकते
लुभाते, बुलाते
मनचाहे ग्रह-नक्षत्र,
कभी-कभी
आवारा उल्लकाएं भी
गुज़र जाती हैं
बिलकुल क़रीब से
वहां है
दूरबीन
'हब्बल' से भी
अधिक शक्तिशाली
मन देख सकता है
हज़ारों आकाशगंगाओं के
पार भी
कुछ भी
पर छू नहीं सकता
चाह कर भी
बेचारा
लाचार मन।
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (१४-०८-२०२१) को
"जो करते कल्याण को, उनका होता मान" चर्चा अंक-४१५६ (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
प्रिय अनिता सैनी जी, मेरी कविता को चर्चा मंच में शामिल करने पर आपका हार्दिक आभार एवं बहुत-बहुत धन्यवाद🌹🙏🌹
Deleteअद्भुत सृजन।
ReplyDeleteएक तरफ खुरदरा विज्ञान दूसरी और मन की आलोकिक गति।
संवेदनाओं से ओतप्रोत सृजन।
हार्दिक धन्यवाद कुसुम कोठारी जी 🌹🙏🌹
Deleteसुंदर है कविता का भाव और शिल्प. बधाई शरद जी!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कल्पना मनोरमा जी 🌹🙏🌹
Deleteअति सुंदर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद गगन शर्मा जी🌹🙏🌹
Deleteहिंदी रचना जगत में आपकी सुंदर रचनाएं दिल को छू लेती हैं। बधाईः
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