प्रेम-मंत्रों से नहा कर
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
पढ़ लेते हो तुम
मेरी जिस कविता को
देर रात गए
अपनी व्यस्तताओं के बीच
पवित्र हो जाती है
वह
एक नभगंगा की तरह
देर तक झिलमिलाती है,
असंख्य ताराओं की
धारा की तरह
बहती है
मेरे फेसबुक वॉल पर
दमकता है मन
चेतन अवचेतन के
क्षितिज पर
मध्यरात्रि के
बृहस्पति तारे की तरह
सिर्फ़ तब
जब
तुम पढ़ते हो
मेरे लिखे को
एक ऋचा की तरह
और हो जाती है
पूरी की पूरी रात,
निराकार
प्रेम-मंत्रों से
नहा कर वैदिक।
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