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11 June, 2023

कविता | उसे आती है शर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
उसे आती है शर्म
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक घुमक्कड़ी
एक यात्रा और
ढेर सारी तस्वीरें
ढेर सारी नई ताज़ा, टटकी यादें
ढेर सारी खुशियां

पर एक न एक धब्बा
हर उस तस्वीर में
जो ली थी सड़क के किनारे,
कहीं गहरा, कहीं हल्का
कहीं बड़ा, कहीं छोटा
धब्बा !
एक चुभता हुआ धब्बा,
इश्क़ में मिले धोखे-सा
दिल तोड़ता धब्बा !!

हवा ने बुहार कर
कर दिया था किनारे
बड़े जतन से,
हवा नहीं उसे उठा कर
डाल जो नहीं सकती थी
उसे डस्टबिन में
बेचारी हवा!

बड़े यत्न से मिटाया मैंने
उस धब्बे को
अपनी तमाम तस्वीरों से,
हो गईं तस्वीरें साफ-सुथरी
पर 
हक़ीक़त की तस्वीर पर
वह धब्बा आज भी है
जिसे नहीं मिटा पा रही
झुंझलाई हुई हवा
और न मैं

वह धब्बा 
है हर सड़क के किनारे
चिप्स या कुरमुरे के खाली पैकेट,
गुटखे के रिक्त पाउच
और लापरवाही से फेंक दी गई
पानी की खाली बोतल के रूप में
ज़िंदगी की तस्वीर को बिगड़ता हुआ
हमारी सभ्यता की धज्जियां उड़ाता हुआ

हवा करती है किनारे
हर समय बुहार-बुहार कर
क्योंकि उसे आती है शर्म, 
पर हमें नहीं
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