शायरी
वक़्त गया तो जाते-जाते, दिल पर छाला छोड़ गया।
ट्रक से टपके तैल सरीखा, धब्बा-काला छोड़ गया।
पगुराती गायों की गलियों से हो कर जो पल गुज़रा
अलसाए जीवन के ऊपर, मकड़ी-जाला छोड़ गया।
गांव भागते शहर चुरा कर, चौर्यवृत्ति इस क़दर बढ़ी
अधुनातन होने का लालच, सद्गुण-माला छोड़ गया।
दो कानों की बात हमेशा, पड़ी मिली चौराहे पर
जिसका भी दिल आया, उस पर, मिर्च-मसाला छोड़ गया।
प्लेटफाॅर्म के हरसिंगार ने, देखा है उस इंजन को
बेफिक्री से बीड़ी पी जो, धुंआ - उछाला छोड़ गया।
घर से भागे असफल-प्रेमी, जैसा खोया-खोया मन
‘एक शहर की मौत’ ले गया, पर ‘मधुशाला’ छोड़ गया।
चांद रात को आया था जब, तारों की चुग़ली करने
कुर्सी के पुट्ठे पर अपना, फटा दुशाला छोड़ गया।
कलाकार निस्पृह होता है, यही सिद्ध काने, शायद
खजुराहो की रंगभूमि पर, एक शिवाला छोड़ गया।
दूर यात्रा पर जब निकला, सोच-विचारों का छौना
खोल गया सारे दरवाज़े, चाबी-ताला छोड़ गया।
बेहद भूखा था वह शायर, रोटी खाने बैठा था
नई ग़ज़ल की आहट पा कर, हाथ निवाला छोड़ गया।
फिर लगता है, किसी अभागिन ने पीपल का वरण किया
सूरज अपने पीछे-पीछे, लाल उजाला छोड़ गया।
कच्ची स्लेटों पर अक्षर भी, कच्चे- कच्चे उगते हैं
किन्तु मजूरी की ख़ातिर वह अपनी शाला छोड़ गया।
आंधी का इक तीखा झोंका, रिश्ते में ढल कर आया
निष्ठुरता से दीप बुझा कर, सूना आला छोड़ गया।
अहसासों का पंछी आ कर, जब-जब कांधे पर बैठा
आंखों में आंसू का बहता, इक परनाला छोड़ गया।
हम बस्ते में बंधे रह गए, ‘शरद’ फ़ाइलों के जैसे
हमको दस्तावेज़ बना कर, लिखने वाला छोड़ गया।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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