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29 April, 2023

ग़ज़ल | इक भरम था | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

इक भरम था ख़्वाब का, वो भी मगर
नींद   रूठी,  साथ  अपने   ले   गई ।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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27 April, 2023

शायरी | मेरे ख़्वाब की किरचें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शायरी

मेरे ख़्वाब की किरचें, मेरी आंखों में चुभती रहती हैं।
अश्क़ों की ख़ामोश लकीरें, भीतर ही भीतर बहती हैं।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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19 April, 2023

कविता | आई शपथ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आई शपथ !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

यादों के साथ जीना
और सीने पर 
दुनियादारी का
पत्थर रख कर 
आंसुओं को पीना
आसान नहीं है,  मित्र!

अपने कमज़ोर कंधे पर
ख़ुद को
जीते जी ढोना
आसान नहीं है, मित्र !

आसान नहीं कुछ भी
फिर भी 
जीना है, सांस लेना है
क्योंकि मेरी मां ने
मुझे नहीं सिखाया पलायन
या हार मानना

अभिमन्यु की तरह
जी लूंगी, 
विपदाओं से घिर कर भी
पर हार नहीं मानूंगी, मित्र !
सच कहती हूं....
*आई शपथ !
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*आई (मराठी) = मां
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17 April, 2023

मैं उनकी ग़ज़लों की ज़बरदस्त फैन रही हूं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो 
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए 
- शायर बशीर बद्र 
#यादें और #यादों  के #उजाले ...
 ये पुरानी तस्वीर... सागर में एक कवि सम्मेलन - मुशायरे के दौरान अपने पसंदीदा शायर डॉ बशीर बद्र जी के साथ मंच शेयर करने का सौभाग्य मिला था ... यह तस्वीर उसी समय की... मैं उनकी ग़ज़लों की ज़बरदस्त फैन रही हूं ...और आज भी हूं।  ग़ज़लों की  अदायगी भी बहुत प्रभावी रहती थी...
ग़ज़लों को आम बोलचाल की भाषा में कहना और हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी का बहुत ही सहजता से प्रयोग करना ...यही उनकी ग़ज़लों की खूबी मुझे हमेशा अच्छी लगी...
    उनका एक और शेर जो सफ़र के दौरान मुझे हमेशा याद आया करता है - 
    दालानों की धूप छतों की शाम कहां
    घर के बाहर  घर जैसा  आराम कहां
🌹
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16 April, 2023

कविता | बेचारा प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सदीनामा

अचानक "सदीनामा" में अपनी कविता "बेचारा प्रेम" देखकर चकित रह गई और अत्यंत सुखद अनुभूति हुई...
   आपकी हार्दिक आभारी हूं मेरी कविता का स्वतः चयन करने के लिए भारत दोसी जी 🙏
हार्दिक धन्यवाद 🙏🌹🙏
.................
मित्रो, आपकी पठन सुविधा के लिए कविता का टेक्स्ट भी यहां दे रही हूं...

बेचारा प्रेम
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कल रात
मैंने सपने में देखा
बौखलाया
झुंझलाया
दिग्भ्रमित प्रेम

हर पल 
बदल रहा था
उसका रूप-
कभी टूटा पत्ता
तो कभी 
बिना हैण्डल का मग
कभी तुड़ामुड़ा काग़ज़
तो कभी
उखड़ी कॉलबेल
कभी गिड़गिड़ाता भिखारी
तो कभी
रुदन करती रूदाली

उसे व्यथित देख
पूछा -
दुख क्या है तुम्हें?

वह बोला-
छल करते हैं लोग
मेरा मुखौटा लगाकर
मुझे रहने नहीं देते 
मेरी मनचाही जगह,
मैं चाहता हूं रहना
सीरियाई, तंजानिया 
और बुरुंडी के 
शरणार्थी शिविरों में,
मैं चाहता हूं रहना
धारावी की स्लम बस्ती
और 
सोनागाछी के तंग कमरों में,
मैं चाहता हूं रहना
उन हथेलियों में
जिनमें नहीं है भाग्यरेखा
उन पन्नों में 
जिन पर नहीं लिखा गया
मेरे नाम का पत्र
उन आंखों में
जो देखना चाहती हैं मुझे
उन सांसों में
जो संचालित होना चाहती हैं
मुझसे.....

वह देर तक बोलता रहा
मैं देर तक सुनती रही
फिर रोते रहे 
गले लग कर 
हम दोनों
नींद खुलने तक

बेचारा प्रेम
नहीं है वहां
जहां चाहता है होना,
ठीक मेरी तरह।
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10 April, 2023

ग़ज़ल | इक पहेली - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल 
इक पहेली 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शाम को  बारिश हुई और थम गई
रात है  कि  भीगती  ही  जा रही है
हर कद़म पर इक पहेली बन गई
ज़िन्दगी  यूं  बीतती ही जा रही है
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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04 April, 2023

कविता | अनुगूंज - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता 
अनुगूंज 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उदासी की बूंदें
टपक रही
टप-टप
मन की 
रिक्त बाल्टी में...
बूंदें छोटी 
पर 
अनुगूंज बहुत बड़ी...
कब भरेगी बाल्टी
कब थमेगी ध्वनि
पता नहीं
जीवन के दिवस में
रात का साया
कुछ ज़्यादा ही 
गहराया...
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