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03 July, 2025

कविता | प्रेम झूमेगा वहीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
प्रेम झूमेगा वहीं
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

काई जमी
खपरैलों के बीच से
टपकती बूंदें
विवश कर देती हैं
छत पर चढ़ने
जोखिम लेने को

फिर से जमाते हुए
खपरैलों को
सहसा
बज उठता है मृदंग
धड़कनों में
खनखना उठते हैं मंजीरे
कानों में
गूंज उठती है
प्रेमधुन

जब कोई 
मिठास भरे स्वर में
कहता है अचानक -
'लग रही हो अच्छी तुम
छाजती हुई खपरैल
लेकिन करने दो मुझे
डर है कहीं गिर न जाओ!'

अपनत्व भरे
एक चिंतातुर स्वर में
सिमट आती हैं
वे सारी बूंदें
जिन्होंने भिगोया था
सारी रात
टप-टप टपक कर
खपरैल की दरारों से

देखो तो!
प्रेम ने 
ढूंढ लिया रास्ता
जहां वह होगा मुखर
शब्दों से कहीं अधिक
संकेतों में
बचकर सबकी 
दृष्टियों, कुदृष्टियों से

तभी, एक पल्लू का छोर
दबेगा 
कांपते कोमल अधरों में
और
एक गमछा
सरसराएगा बलिष्ठ
कांधों पर

प्रेम झूमेगा वहीं
मल्हार गाता 
भीगता
खपरैल की दरारों को
अगले दिन के लिए
बचा कर सहेजता
मिलन-सेतु बनाता
पुनः
पुनः
पुनः
पुनरावृत्ति के लिए।        
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02 July, 2025

प्रेम कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
इतराता है प्रेम
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसके मैले चेहरे पर
तैर जाती है मुस्कान
खिंच जाती है
आंखों की कोर
रक्त की तरंगे
नीचे से ऊपर 
ग्रीवा को छूती हुईं
दौड़ जाती हैं
ललाट तक

कांपता है
हाथ का कटोरा
खनकते हैं चंद सिक्के
किन्तु अधरों से
नहीं फूटते स्वर

टोंकता है मस्तिष्क 
- 'मांग तू दाता के नाम'
पर मन
देता है उत्तर-
'मैंने प्रेम रतन धन पायो!'

उस पल
इतराता है प्रेम
खुद पर, 
जब गुज़रता है
एक भिखारी के
हृदय से हो कर
और
पाता है
मधुर संकेत
एक भिखारिन से

प्रेम के लिए
न कोई अस्पृश्य
न कोई रंक
क्योंकि
प्रेम जानता है
पंच तत्वों की भांति 
अपनी अनिवार्यता।          
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