काई जमी
खपरैलों के बीच से
टपकती बूंदें
विवश कर देती हैं
छत पर चढ़ने
जोखिम लेने को
फिर से जमाते हुए
खपरैलों को
सहसा
बज उठता है मृदंग
धड़कनों में
खनखना उठते हैं मंजीरे
कानों में
गूंज उठती है
प्रेमधुन
जब कोई
मिठास भरे स्वर में
कहता है अचानक -
'लग रही हो अच्छी तुम
छाजती हुई खपरैल
लेकिन करने दो मुझे
डर है कहीं गिर न जाओ!'
अपनत्व भरे
एक चिंतातुर स्वर में
सिमट आती हैं
वे सारी बूंदें
जिन्होंने भिगोया था
सारी रात
टप-टप टपक कर
खपरैल की दरारों से
देखो तो!
प्रेम ने
ढूंढ लिया रास्ता
जहां वह होगा मुखर
शब्दों से कहीं अधिक
संकेतों में
बचकर सबकी
दृष्टियों, कुदृष्टियों से
तभी, एक पल्लू का छोर
दबेगा
कांपते कोमल अधरों में
और
एक गमछा
सरसराएगा बलिष्ठ
कांधों पर
प्रेम झूमेगा वहीं
मल्हार गाता
भीगता
खपरैल की दरारों को
अगले दिन के लिए
बचा कर सहेजता
मिलन-सेतु बनाता
पुनः
पुनः
पुनः
पुनरावृत्ति के लिए।
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बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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