भोर का प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
पक्षियों के कलरव से
जागती भोर
तोड़ती है
सूरज की अंगड़ाइयों को
गति पकड़ने लगती है
हवा भी
घरों के भीतर
खनखना उठते हैं बरतन
जल उठते हैं चूल्हे
पतीलियों में उबलती
शक्कर, चायपत्ती
दूध और इलायची के संग
चाय छनती है
भाप उठती
हो जाता है शुरू
कोलाहल
ठीक उसी समय
आता है प्रेम चाय में
घुलकर
जहां मुस्कुरा कर
परस्पर
एक-दूसरे को
थमाया जाता है प्याला
पारिवारिक भीड़ के बीच
प्याले को थामती हुई उंगलियां
चुपके से दबा देती हैं
दूसरे की उंगलियों को
कौंध जाती है बिजली सी
दोनों की देह में
प्रेम मुस्कुराता है
शालीनता से
किसी एक घर में
प्रेम और अधिक
मुखर हो जाता है
और चाय से भी पहले
शयनकक्ष में प्रवेश कर
बालों को सहलाता है
माथे पर
कुनकुनी धूप के
एक गहरे चुंबन के साथ
जागता है
सो, भोर होते ही
जीवन में
समाने लगता है प्रेम
अपनी पूरी
विविधता के साथ
बस, कोई उसे
महसूस कर पाता है
और कोई नहीं।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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