कविता
ठीक उसी समय
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
स्वरुचि भोज स्थल के पीछे
धधकते
व्यावसायिक
गैस चूल्हे से उतरा
बांस की कमचियों से
बुनी गई टोकरी में
पसाने को डाला गया
ताज़ा रांधा गया भात
हवा में
घोलता है वह सुगंध
कि जाग उठती है
आदिम
अदम्य
भूख
भात की वह सफ़ेद छटा
भाप के धुंधलके से उभर कर
दिलाती है याद
न जाने कितने
विस्थापित
भटक रहे हैं
एक मुट्ठी
बासी भात के लिए
ठीक उसी पल
दिखता है रक्तरंजित
ताज़े भात का
एक-एक कण
ठीक उसी पल
स्वयं को पाते हैं
कटघरे में
"स्व" "रुचि" और "भोज"।
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