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20 May, 2022

ग़ज़ल | यादों को उसकी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

यादों को उसकी भुलाना कठिन है
हथेली पे  सरसों  उगाना कठिन है
मुद्दत  से   देखा  नहीं  है  भले ही
ज़ेहन से उसको मिटाना कठिन है।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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18 May, 2022

कविता | वस्त्र के भीतर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नेशनल एक्सप्रेस

मित्रो, नई दिल्ली से प्रकाशित "नेशनल एक्सप्रेस" के साहित्यिक परिशिष्ट "साहित्य एक्सप्रेस" में मेरी आज एक कविता प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है "वस्त्र के भीतर"। आप भी पढ़िए।
हार्दिक धन्यवाद गिरीश पंकज  ji🙏
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कविता
वस्त्र के भीतर 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मन का जुलाहा
बुन रहा 
विचारों और
भावनाओं का ताना-बाना

डाल रहा सुनहरे बूटे
कल्पनाओं के
बुनने 
दिल की चादर

खट्खट् चलती
धड़कनें
सांसों की सुतली से बंधीं
फ्रेम-दर-फ्रेम

त्रासदियों के शटल 
गसते बुनावट को
फिर भी बचे रहते 
संभावनाओं के छिद्र
ताकि
आ सके प्राणवायु
देह के रेशे-रेशे में
दुनियावी
वस्त्र बदलने तक

आवरण है वस्त्र तो
जिसे पड़ता है बुनना
वरना 
हर देह रहती है नग्न
अपने वस्त्र के भीतर
वस्त्र चाहे रेशम का हो 
या सूत का,
वस्त्र मिलता है 
दुनिया में आकर 
और छूट जाता है यहीं

वस्त्र ढंकते हैं देह को
देह आत्मा को
और एक अनावृत आत्मा 
हमारा अंतर्मन ही तो है
वस्त्रों की अनेक परतों के भीतर
यदि उसे 
देख सकें हम।
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13 May, 2022

ग़ज़ल | मंज़र सारे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मंज़र सारे  फ़ीके,  धुंधले  नज़र आ रहे
अश्क़ों के  पर्दे  आंखों को  ढंके  जा रहे
इश्क़ का  शीशा टूटा, किरचें  बिखर गईं
जख़्मी पैरों से आखिर हम किधर जा रहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


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12 May, 2022

कविता | मेरी भावनाएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
मेरी भावनाएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भावनाएं
कभी सुप्त विसूवियस 
तो कभी
अलकनंदा की
कल-कल लहरें

भावनाएं
कभी थिर ध्रुव तारा
तो कभी
उल्काओं की बारिश

भावनाएं
कभी सीधी लकीरें
तो कभी
पिकासो की पेंटिंग्स

भावनाएं
कभी स्टेयरिंग व्हील
तो कभी
घूमते पहियों की रिम

भावनाएं
कभी हथेली की मेंहदी
तो कभी
मुट्ठी से फिसलती रेत

भावनाएं
कभी गोपन अंतःध्वनि
तो कभी
कलरव, कल्लोल

भावनाएं
कभी जादुई छुअन
तो कभी
कटीले तारों की बाड़

भावनाएं 
कभी कविता के शब्द 
तो कभी 
उपन्यास के कथानक

भावनाएं 
चलती हैं अपनी मनमर्जी से 
किसी हुक्मरान के 
हुक्म से नहीं

ये मेरी भावनाएं हैं 
जो बनकर लाल रक्त कणिकाएं
मुझे देती है स्पंदन 
मैं उन्हें नहीं,

वे यांत्रिक नहीं 
वे हैं खांटी प्राकृतिक 
क्योंकि
भावनाएं
बिजली का स्विच नहीं
कि कभी भी
किया जा सके
ऑन या ऑफ 
एक उंगली के इशारे से।
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09 May, 2022

कविता | बहुत छोटा है प्रेम शब्द | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

साहित्यिक सरोकारों वाली वेब मैगजीन "युवा प्रवर्तक" में आज मेरी कविता प्रकाशित हुई है इसका शीर्षक है -"बहुत छोटा है प्रेम शब्द"।
इस लिंक्स पढ़िए -
https://yuvapravartak.com/63091/
तथा युवा प्रवर्तक के फेसबुक पर भी -
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=553367486425237&id=108584627570194

कविता
बहुत छोटा है प्रेम शब्द
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

काश!
वह सड़क लम्बी हो जाए
टूर से
घर लौटने वाली,
तुम्हारी यात्रा
बढ़ जाए
एक घंटे और 
दो घंटे और 
तीन घंटे और 
चार घंटे और 
और ..और ..और..
चाहता है स्वार्थी मन 
बस इतना ही
कि तुम अनवरत चलते रहो 
और 
बातें करते रहो मुझसे
मन की 
दुनिया की 
ब्रह्मांड की
समता की
विषमता की
वर्तमान की
अतीत की
आशा की
निराशा की
बातें ही तो हैं 
जो जोड़े रखती हैं 
परस्पर हम दोनों को 
एक-दूसरे से 
वरना इस दुनियावी चक्र में 
मैं पृथ्वी हूं 
तो तुम सुदूर प्लूटो 
कोई नहीं साम्य नहीं 
कोई नहीं मेल 
कोई नहीं अपेक्षा  
कोई नहीं संभावना 
कोई नहीं वादा
कोई नहीं इरादा
बस दो ग्रहों की भांति 
एक आकाशगंगा में 
विचरते हुए हम 
बातें ही तो करते हैं 
अपने एंड्राइड फ़ोन में
परअंतरक्षीय तरंगें उतारकर
मिटा लेते हैं
हज़ारों प्रकाशवर्ष की दूरी
जो कोई ग़ुनाह नहीं 
इसीलिए 
चाहती हूं तुम्हारी यात्रा 
हर दफ़ा सड़क की लंबाई को 
ज़रा और बढ़ाती जाए 
और हम अपनी धुरी में घूमते हुए 
एक-दूसरे के अस्तित्व को महसूस कर 
होते रहें ऊर्जावान
अपने अलौकिक अहसास के साथ
बहुत छोटा है प्रेम शब्द 
जिसके आगे।
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