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20 January, 2022

अब कठिन हो चला है | कविता | डॉ शरद सिंह

अब कठिन हो चला है
         - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

एक तारा 
टिमटिमाता है
दूसरा टूटता है
और तीसरा -
सबसे बड़ा हो कर भी
दिखता है फ़ीका
क्योंकि वह है बहुत दूर
अंतरिक्ष की अतल गहराइयों में
दृष्टि की क्षमता के
अंतिम छोर पर

ठीक ऐसे ही
बनता है एक विक्षोभ
हृदय के भीतर
सांसों की गति से
करवट लेते मौसमों के बीच

कड़ाके की ठंड में
जब चांद बन गया हो सूरज
बर्फ जमती-सी
महसूस होने लगी हो
एकाकीपन के ध्रुव में
यादों की लपट
पिघलाने लगती है
भावनाओं के ग्लेशियर को
बढ़ने लगता है तब
आंखों का जलस्तर

देह में गहराती शीत
मन को झुलसाती भावनाएं
आंखों में आती बाढ़
सच,
अब कठिन हो चला है
एक साथ
सारे मौसमों को जीना।
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5 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२२-०१ -२०२२ ) को
    'वक्त बदलते हैं , हालात बदलते हैं !'(चर्चा अंक-४३१३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. बहुत खूब लिखा शरद जी, ठीक ऐसे ही
    बनता है एक विक्षोभ
    हृदय के भीतर
    सांसों की गति से
    करवट लेते मौसमों के बीच...वाह मगर कहीं उदासी दिख रही है इस रचना में।

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  3. चारु-कृति ।
    " तुझको न रुलाने से , हंसाने से डिगेंगे । "

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