अहसास
- डॉ शरद सिंह
रात
किसी ठंडे
अहसास की तरह
दौड़ती है रगों में
थके-थके क़दमों से
हांफती हुई
दिन भर के ख़ुलासे
चेहरों में ढल कर
आने लगते हैं सामने
किसी चलचित्र की तरह
शब्दों के गुबार
छाने लगते हैं
एक धुंध की तरह
बोलने वालों के इरादे
छिप जाते हैं
उस धुंध के पीछे
फिर भी
सब कुछ है साफ़
प्रस्ताव, प्रहसन,
झूठी प्रशंसा
संदिग्ध इरादे
इसमें
कोई जगह नहीं
दर्द या आंसुओं की
नहीं करना साझा
यह किसी को
ज़िंदगी
रात की मानिन्द
सरक ही जाएगी
पर
सुबह कब होगी
पता नहीं।
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