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10 July, 2021

स्मृतियां | कविता | डॉ शरद सिंह

स्मृतियां  
       - डॉ शरद सिंह

धड़कती हुई
दीवारें कमरे की
दोहराती रहती हैं
अच्छी-बुरी,
खट्टी-मीठी
ख़ारी-कड़वी
स्मृतियां

हम जीते हैं स्मृतियों में
स्मृतियां जीती हैं हमको
और दीवारें
पान के पत्तों की तरह
उलटती-पलटती रहती हैं
स्मृतियों को
कि वे 
रह सकें ताज़ा

है ज़रूरी दीवार पर
एक अदद खिड़की 
ताकि 
भरपूर सांस ले सके
स्मृतियों से भरा कमरा
एक निजी स्मारक की तरह।
            ---------
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5 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (12-07-2021 ) को 'मानसून जो अब तक दिल्ली नहीं पहुँचा है' (चर्चा अंक 4123) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. है ज़रूरी दीवार पर
    एक अदद खिड़की
    ताकि
    भरपूर सांस ले सके


    सुंदर अभिव्यक्ति...

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  4. है ज़रूरी दीवार पर
    एक अदद खिड़की
    ताकि
    भरपूर सांस ले सके
    स्मृतियों से भरा कमरा
    एक निजी स्मारक की तरह।
    स्मृतियों को स्वतंत्रता से आने जाने दीजिए। ना हम बँधें, ना उनको बाँधें।

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