बढ़ा दो दायरा
- डॉ शरद सिंह
टूट चुके अंतर्मन में
उठता है एक अज़ब द्वंद्व
देह से परे
रचती हैं स्मृतियां
देह का इंद्रजाल
जब तक उपयोगी है देह
साथ देती हैं सांसें भी
तभी तो
कभी आने को आतुर
आया भी तो अनमना-सा
भयभीत, डरा-सा
घाव कुरेदने के अलावा
न कोई चर्चा और
न कोई प्रश्न
क्या यही है
कथित अपनेपन का
स्याह पक्ष
दोष क्या उसे?
सभी को बना दिया है समय ने
संवेदनहीन
कोरोना ने फेफड़ों को ही नहीं गलाया
गला दिया है प्रेम को,
विश्वास को, आत्मीयता को
एक औपचारिक ज़िन्दगी
कब तक जिएगा कोई?
समय कहता है
बढ़ा दो दायरा
आत्मीयता का
और समेट लो उन्हें भी
जैसे पनाह देता है
यूनाइटेड नेशंस
शरणार्थियों को
जो जीवित तो हैं
पर
नहीं भी
मर चुकी है धड़कन
मगर उनकी सांसें
अभी भी हैं उनकी देह में।
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कोरोना काल की रचना समय के प्रभाव से मुक्त भला कैसे हो सकती है...पहली बार शायद दिल से ज़्यादा फेफड़ों को तरजीह मिली है...सुन्दर रचना...
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद वानभट्ट जी 🙏
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (07-06-2021 ) को 'शूल बिखरे हुए हैं राहों में' (चर्चा अंक 4089) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
चर्चामंच में मेरी कविता को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार रवीन्द्र सिंह यादव जी 🙏
ReplyDeleteकोरोना ने फेफड़ों को ही नहीं गलाया
ReplyDeleteगला दिया है प्रेम को,
विश्वास को, आत्मीयता को
एक औपचारिक ज़िन्दगी
कब तक जिएगा कोई?सटीक अभिव्यक्ति 👌👌
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति आदरणीय दी।
ReplyDeleteसादर
कोरोनाजनित पीड़ा को अभिव्यक्ति देती सहज-सुन्दर रचना!
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