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06 June, 2025

कविता | अर्द्धरात्रि का प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का प्रेम
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का 
एकांगी प्रेम
ठीक वैसा ही
होता है जैसे 
अर्द्ध रात्रि का चंद्रमा
किसी फकीर की तरह
चलता चला जाता है 
अपनी ही राह पर
अपनी ही धुन में
चाहे उसमें कोई 
कलंक देखे या 
देखे चांदी-सी चमक
चाहे उसमें कोई 
गोल रोटी देखे या देखे 
चरखा चलाती औरत
पर खुद चंद्रमा
कुछ नहीं देखता 
कुछ नहीं सोचता
चलता रहता है 
सम्मोहित-सा
अपने ही 
खण्डित स्वप्न के पीछे
भोर तक।
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4 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 8 जून 2025 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. अर्द्ध रात्रि का
    एकांगी प्रेम
    ठीक वैसा ही
    होता है जैसे
    अर्द्ध रात्रि का चंद्रमा
    बहुत सुन्दर तुलनात्मक अभिव्यक्ति

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  3. सुन्दर अभिव्यक्ति

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