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05 July, 2023

कविता | पर हुआ है यही | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पर हुआ है यही
              - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
चौंकाती हैं कुछ यादें
ओह! 
कभी ऐसा भी हुआ था?

देखा था टूटते तारे को
लेट कर
खुले आकाश तले,
थाम लिया था
सावन की पहली बूंद को
अपनी हथेली में,
पीछा किया था
एक गिलहरी का
आंगन के एक छोर से
दूसरे छोर तक।

पढ़ा था 
प्रेमपत्र भी
सहेली के पर्स से
चुरा कर,
फिर
चिढ़ाया था उसे 
पूरे सत्र भर 

प्रेम हुआ करता था तब
लिटरेरी
अब होता है
बायनरी,
शुष्क आभासी प्रेम में
नहीं होते तितलियों के पर
न किताबों में दबे गुलाब,
न दुपट्टे के छोर को
उंगलियों में लपेटना,
न काढ़ना रूमाल पर
नाम का पहला अक्षर

किया नहीं
पर देखा तो था
हवाओं में तैरता इशारा,
डेस्क से टकराता कंकड़,
घर से भागी हुई
लड़की पर बहसें,
घबरा कर
नॉकआउट होते
प्रेमी जोड़े

कितना अजीब था सबकुछ
जितना कि
यह सोचना
कि कोई रह चुका है
मेरे भी ख़यालों में,
कभी न होने की तरह

चौंकती हूं सोचकर
समय की तरह
कोई कैसे बदल सकता है
पूरी तरह,
पर हुआ है यही
कल और आज के बीच
गुज़र गए वक़्त में।
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