टूटे पत्ते की तरह
- डॉ शरद सिंह
भीड़
अब नहीं लुभाती मुझे,
तुम्हारे न होने का अहसास
होता है हर जगह
सज़ा है मेरे लिए
सामने दीर्घा में
तुम्हें न देख पाना
जब करता कोई
तुम्हारी चर्चा
"दीदी थीं" के संबोधन सहित,
चींख उठती है
मेरी अंतर्आत्मा
चुभने लगती हैं किरचें
शब्दों की,
उतर जाती है
बलात् ओढ़ी गई
मुस्कुराहट
मन लगाने को
घर से निकले क़दम
जब लौटते हैं घर
किसी आयोजन के बाद
कांपते हैं हाथ
खोलते हुए ताला
लड़खड़ाते हैं पैर
सूने घर में
क़दम रखते ही,
कोई नहीं जो
प्रतीक्षारत हो मेरे लिए
कोई नहीं
जो मेरी बातें सुने
पूछे मुझसे पूरा हाल
घर हो
या आयोजन
एक शून्य
रहता है चुभता
निरंतर
हर पल, हर कहीं
ढूंढती रहती हैं
मेरी आंखें
उस शून्य में भी
तुम्हें ही
संभव नहीं
तुम्हारा आना,
बुला लो मुझे
अपने पास
ख़त्म हो यातना का दौर
वरना
भटकता रहेगा
निरुद्देश्य जीवन
एक टूटे पत्ते की तरह
समय की आंधी में
थपेड़े खाता हुआ।
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शरद जी , वेदना से सिसकते मन की व्यथ कथा पढ़कर मानो शब्द मौन हो जाते हैं | यही कहूंगी --
ReplyDeleteलाख बहाए आँसू हमने- ना लौटे वो जाने वाले //
जाने कहाँ बसाई बस्ती , तोड़ निकल गये मन के शिवाले !////
समय ही दवा है इस दर्द की ! आपको संभलना ही होगा !
हार्दिक धन्यवाद रेणु जी 🙏
Deleteजीवन के सारे यथार्थ जानते, समझते हुए भी मन को समझा पाना सबसे कठिन होता है...
किसी अपने का हमेशा के लिए चले जाना इंसान को तोड़ कर रख देता है। उसके न होने की वेदना बहुत रुलाती है। शुभकामनाएं आपको। सादर।
ReplyDeleteयही सच है वीरेंद्र सिंह जी ...
Deleteआपको हार्दिक धन्यवाद 🙏
शरद जी ,आपको अपने आपको संभालना होगा ,जानती हूँ ,सरल नहीं ,अपना ख्याल रखिएगा ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभम जी 🙏
Deleteआप सब की आत्मीयता ही अब संबल प्रदान करती हैं...
भुला नहीं सकते कभी...
ReplyDeleteपर याद रखने का तरीक़े में बदलाव ज़रूरी
दीदी की ग़ज़लों को कभी-कभार प्रकाशित करिए
सारे पाठकों को भी अच्छा लगेगा
सादर..
जी, बहुत धन्यवाद यशोदा जी !
Deleteआपने सही कहा मैं कोशिश करूंगी...
ओह बेहद मार्मिक चित्रण,नयन हो गये नम
ReplyDeleteओह, क्षमा करें मैं आप सबको व्यथित नहीं करना चाहती हूं 🙏
Delete'पांच लिंकों का आनंद' में मेरी कविता को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद एवं आभार यशोदा अग्रवाल जी 🙏
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