इन दिनों
- डॉ शरद सिंह
मेज पर रखी
अपनी हथेली पर
देखती हूं
ठहरी हुई धूप
गोल, चमकीले धब्बे-सी
देर तक देखती हूं तो
चौंधिया जाती हैं आंखें
अकुलाकर
मूंदती हूं आंखें
दिखते हैं
काले-काले धब्बे
बदल जाता है धूप का चरित्र
आंखों में समाते ही
सोचती हूं तभी-
यानी इंसान
धूप से भी तेज है
चरित्र बदलने में
बदल जाता है वह तो
पलक झपकते ही
धूप को पढ़ती हुई
जान रही हूं
अपनी ज़िम्मेदारियों को
ज़रूरतों को
और
इंसान के प्रकारों को
इन दिनों।
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पग पग पर बदलते रहने की प्रवृति है इन्सान की. न जाने कितने ही प्रकार हो सकते हैं इन्सान के. हम तो बस उतने ही जान पाते हैं जितनों से पाला पड़ा. बहुत खुबसुरत रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट पुलिस के सिपाही से by पाश
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हार्दिक धन्यवाद रोहितास जी
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (३०-0६-२०२१) को
'जी करता है किसी से मिल करके देखें'(चर्चा अंक- ४१११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चामंच में मेरी कविता शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार अनीता सैनी जी 🙏
Deleteइन्सानी फितरत पर गहन अध्ययन ।
ReplyDeleteमनन करने को उकसाती पंक्तियाँ
सुंदर सृजन।
सस्नेह।
हार्दिक धन्यवाद कुसुम कोठारी जी 🙏
Deleteसोचती हूं तभी-
ReplyDeleteयानी इंसान
धूप से भी तेज है
चरित्र बदलने में
बदल जाता है वह तो
पलक झपकते ही
बहुत ही बेहतरीन रचना आदरणीया
हार्दिक धन्यवाद अनुराधा चौहान जी 🙏
Delete
ReplyDeleteवाह!!!!
सोचती हूं तभी-
यानी इंसान
धूप से भी तेज है
चरित्र बदलने में
बदल जाता है वह तो
पलक झपकते ही
बहुत बहुत धन्यवाद सधु चन्द्र जी 🙏
Deleteवाह !कितना सुंदर भाव,गूढ़ चिंतन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जिज्ञासा सिंह जी 🙏
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