प्रेम
- डॉ शरद सिंह
उसने सोचा
वह जाएगा
थैला भर प्रेम
ले आएगा
सब्ज़ी-भाजी की तरह
वह गया
जेबें खाली की
बाज़ार में,
एक-एक टुकड़ा
खरीदता रहा
प्रेम का
दूकानों से
काला-सफ़ेद प्रेम
रंग-बिरंगा प्रेम
मखमली प्रेम
खुरदरा प्रेम
धारदार प्रेम
घिसापिटा प्रेम
हंसता हुआ प्रेम
रोता हुआ प्रेम
हथेली पर रखा प्रेम
आंखों में बसा प्रेम
रूमाल में कढ़ा प्रेम
किताब में लिखा प्रेम
लौट कर घर
उसने जोड़ा
सारे टुकड़े
प्रेम के
और यह क्या?
सारे टुकड़े
परस्पर जुड़ते ही
बन गया
एक प्रोडक्ट
मल्टीनेशनल कंपनी का
पर
नहीं बना प्रेम
वह ठगा-सा खड़ा
देखता प्रोडक्ट
टुकुर-टुकुर
नहीं मिला प्रेम
ज़ेबें खाली कर के भी
आख़िर
सच्चा, साबुत प्रेम
बाज़ारू जो नहीं होता।
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-0६-२०२१) को 'आख़री पहर की बरसात'(चर्चा अंक- ४१०७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेरी कविता को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार अनीता सैनी जी 🙏
Deleteबहुत सुंदर सृजन आदरणीय ।
ReplyDeleteप्रेम अगर ऐसे ही मिलने की वस्तु होती तो किसी को अपनी ज़ुबाँ पर प्रतिबंध लगाने की ज़रूरत ही न होती ।
खुश रहिये
सादर
हार्दिक धन्यवाद 🙏
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