दूर, बहुत दूर
- डॉ शरद सिंह
घर की क़ैद से निकल
दूर, बहुत दूर जाने की इच्छा
बलवती होने लगी है
इन दिनों
अख़बारों की
कराहती सुर्खियों से दूर
मृतक आंकड़ों की
चींखों से दूर
सांत्वना के निरंतर
दोहराए जाने वाले
बर्फीले शब्दों से दूर
अस्पताल परिसर की
यादों से दूर
बंद ग्रिल के पीछे
कोविड वार्ड के
ख़ौफ़नाक अहसास से दूर
आधी रात के बाद
फ़ोन पर आई
उस हृदयाघाती सूचना से दूर
शासन तंत्र की
ख़ामियों से दूर
घोषणाओं की
झूठी उम्मींदों से दूर
जनता की
आत्मकेन्द्रियता से दूर
प्रजातंत्र के राजा की
नींदों से दूर
कहीं दूर...
बहुत दूर
जहां सागौन का हो जंगल
संकरी पगडंडी
एक पतली नदी
एक झरना
एक कुण्ड
देवता विहीन
प्राचीन मंदिरों के अवशेष
बंदरों की हूप
और पक्षियों की आवाज़ें
वहां
जहां मैं प्रकृति में रहूं
और प्रकृति मुझमें
न कोई बनावट
न धोखा, न छल
न पंजा, न कमल
ले सकूं खुल कर सांस
प्रदूषण रहित हवा में
न ढूंढना पड़े जीवन
वैक्सीन या दवा में
शायद तब मैं
जी लूंगी
एक बार फिर
जी भर कर।
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 जून 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
मेरी कविता को "पांच लिंकों का आनन्द" में शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी 🙏
Delete"न धोखा, न छल
ReplyDeleteन पंजा, न कमल
ले सकूं खुल कर सांस"
और
"देवता विहीन
प्राचीन मंदिरों के अवशेष
बंदरों की हूप
और पक्षियों की आवाज़ें" - शहद और शबनम-सी मखमली जीवनदायिनी कल्पनाएँ ...
धन्यवाद सुबोध सिन्हा जी 🙏
Delete"..
ReplyDeleteवहां
जहां मैं प्रकृति में रहूं
और प्रकृति मुझमें
न कोई बनावट
न धोखा, न छल
न पंजा, न कमल
ले सकूं खुल कर सांस
प्रदूषण रहित हवा में
न ढूंढना पड़े जीवन
वैक्सीन या दवा में
...."
..........बिलकुल मेरी भी यही इच्छा है। शायद सबकी यही इच्छा होगी।
इसमें एक पंक्ति है :
"न पंजा, न कमल".....-यह तो किसी भी तरह से नहीं चाहिए। वर्तमान परिस्थिति में अब राजनीति का एक घूंट भी बर्दाश्त नहीं है।
आपने बहुत ही मार्मिक रचना और आपने सभी के अंतर्मन की इच्छाओं को इस रचना के माध्यम प्रस्तुत किया है। बेहतरीन।
हार्दिक धन्यवाद प्रकाश शाह जी 🙏
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