पांव-पांव चादर
- डॉ शरद सिंह
रोज़ रात को
जब पड़ती हैं बिस्तर पर
सिलवटें
मेरी करवटों से
जागता है रतजगे का अहसास
नापती हूं अपनी चादर को
कभी चादर बड़ी
और पांव छोटे
तो कभी पांव बड़े
और चादर छोटी
किसी दिहाड़ी मज़दूर की
आमदनी की तरह
कभी कम तो कभी ज़्यादा
चादर बदलती रहती है अपनी नाप
या फिर मेरे पांव ही
होते रहते हैं
कभी छोटे तो कभी बड़े
नींद की लम्बाई
करती है तय
पांव और चादर की नाप को
और
नींद वश में है बेचैनी के
बेचैनी पढ़ती है पहाड़ा
सत्ते सात, अट्ठे आठ का
मुड़ जाते हैं पांव घुटनों से
हो जाती है चादर लम्बी
सिर ढांपते ही
चादर से बाहर
निकल आते हैं पांव
तभी घुटता है दम,
फड़फड़ाती है चादर
यह खेल
हर रात का,
यह खेल पांव-पांव चादर का
आया है मेरे हिस्से में
नियति बन कर।
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बहुत सुंदर!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद विश्वमोहन जी 🙏
Deleteहृदय स्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteसादर
बहुत-बहुत धन्यवाद अनिता सैनी जी 🌹
Deleteह्रदय की बेचैनी को उकेरती मर्म स्पर्शी रचना !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुपमा त्रिपाठी जी🌹
Deleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद ओकार जी 🙏
Deleteचर्चा मंच में मेरी कविता को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार अनिता सुधीर जी 🙏
ReplyDeleteएहसास से भरी अनुभूति का सटीक चित्रण ।
ReplyDeleteजागती रातों की कशमकश का शानदार संजीव चित्रण।
सुंदर सृजन।
हार्दिक धन्यवाद कुसुम कोठारी जी
Deleteअंतर्मन की बेचैनी को शब्दों का रूप देना भी बहुत मुश्किल होता है,जो आपने बाखूबी किया है,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी सिन्हा जी
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीया
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनुराधा चौहान जी
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