ग़ज़ल
- डॉ शरद सिंह
अश्क़ आंखों से बह गया होता
दिल का दरिया उतर गया होता
दिल का दरिया उतर गया होता
ग़म को रक्खा है बंद मुट्ठी में
वरना सब पे बिखर गया होता
गर कोई इंतज़ार करता तो
शाम होते ही घर गया होता
उसकी मां ने उसे नहीं डांटा
वरना वो भी सुधर गया होता
वो 'शरद' को अगर समझ लेता
दुश्मनी को बिसर गया होता
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हर एक शेर कमाल है
ReplyDeleteगर कोई इंतज़ार करता तो
शाम होते ही घर गया होता
वाह वाह
बहुत ही लाजवाब शेर है। मजा आ गया पढ़के।
आपके ब्लॉग तक पहली बार आया हूँ। बहुत अच्छा लगा। हम भी लिखते हैं थोड़ा बहुत
आप भी पधारें हमारे ब्लॉग तक शून्य पार
बहुत सुंदर और सार्थक भाव लिए हर अश्आर।
ReplyDeleteवाह्ह्ह्।
Nice Gazal.
ReplyDeleteNature