ग़ज़ल
- डॉ शरद सिंह
अश्क़ आंखों से बह गया होता
दिल का दरिया उतर गया होता
दिल का दरिया उतर गया होता
ग़म को रक्खा है बंद मुट्ठी में
वरना सब पे बिखर गया होता
गर कोई इंतज़ार करता तो
शाम होते ही घर गया होता
उसकी मां ने उसे नहीं डांटा
वरना वो भी सुधर गया होता
वो 'शरद' को अगर समझ लेता
दुश्मनी को बिसर गया होता
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