मित्रो, "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 20.02.2022 को "चांद गया था दवा चुराने" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
चांद गया था दवा चुराने
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
गेरू ले कर दीवारों पर शुभ-शुभ शब्द उकेर।
जाने कैसा दिन गुजरेगा, बैठा काग मुण्डेर।
सप्तपदी चल, टूटे बंधन, सुलगे हैं खलिहान
नदी सूख कर तड़क गई है, छोड़ प्यास का ढेर।
मैकल-पर्वत की सी पीड़ा, झील सरीखी आंख
सपनों की वंशी को ले कर, डोले समय- मछेर।
धुंआ उगलती खांस रही थी, मावस डूबी रात
चांद गया था दवा चुराने, खाली ज़ेबें फेर।
लिए हथकड़ी दौड़ रही है हवा, मुचलका भूल
छत पर चढ़ कर सूरज झांके, देखे आंख तरेर।
चाहे जितना बचना चाहो, जलना है हर हाल
छनक-छनक कर ही जलती है,घी में बची महेर।
हाॅकर-छोरा सुबह-सवेरे घूमे सब के द्वार
जैसे कलगी वाला मुर्गा, रहे दिवस को टेर।
बारह बरस बिता कर चाहे, फिरें घूर के भाग
पर, कुछ तो बदलाव हमेशा होता देर-सवेर।
यह दुनिया बिखरी टुकड़ों में, दूर-दूर विस्तार
किन्तु ‘शरद’ का मन, बस चाहे दो बांहों का घेर।
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