30 October, 2018

ये गुब्बारे - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh with Balloons
सुनो ज़रा क्या कहते हैं ये गुब्बारे
धार  हवा  की  सहते हैं  ये गुब्बारे

रंगों की ये बांध पोटली  कांधे पर
भीतर-भीतर  दहते  हैं  ये गुब्बारे

बंधे हुए हैं पर इनको परवाह नहीं
अपनी रौ  में  बहते  हैं ये  गुब्बारे

बच्चे, बूढ़े, युवा कहीं कोई भी हो
सब के मन को गहते हैं ये गुब्बारे

किसी हसीं सपने के जैसे लगते हैं
‘शरद’ धूप मे उड़ते हैं  ये गुब्बारे

                             - डॉ. शरद सिंह



29 October, 2018

श्रद्धा का एक दीप जलने दो - डॉ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh in Prayer
मन में विनीत भाव पलने दो
श्रद्धा का एक दीप  जलने दो


पुलकित है नदी अगर प्रेम से
लहरों को जोर तो उछलने दो


धरती और आसमान  एक  हैं
शाम ढले क्षितिज पिघलने दो


जिनके  हैं  क़दम  डगमगाये
एक बार उनको सम्हलने दो 


‘शरद’ रात शीतल है भोर तक
गर्मी  की  चर्चाएं  चलने दो


- डॉ शरद सिंह

23 October, 2018

मेरे चालीस दोहे - डॉ शरद सिंह

 
Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh

मेरे चालीस दोहे - डॉ. शरद सिंह

रखा हुआ है मेज पर,  अब तक वह रूमाल।
जिसे छोड़ कर कह गए, अपने मन का हाल।। 1।।

खिड़की पूछे- ‘क्या हुआ?’, दीवारें चुपचाप।
पोर-पोर तक जा चढ़ा, प्रेम ज्वार का ताप।। 2।।

मन तो चाहे लांघना, हर चौखट, हर द्वार ।
सकुचाया मन दो क़दम, उठ कर जाए हार।। 3।।

देह कमलिनी-सी हुई, अधर हुए जासौन।
हृदय करे कलरव मगर मुख ने साधा मौन।। 4।।

मोरपंखियां  चाहतें,  छीने दिल  का  चैन।
सपनों में  तो  रोज़ ही,  मिले नैन से नैन ।। 5।।

अस्त-व्यस्त है ज़िन्दगी, नहीं सूझता काम।
धरे हाथ पर हाथ अब, बीते सुबहो-शाम।। 6।।

सूरज झांके भोर से,  चढ़ कर रोशनदान।
भाव-भंगिमा बांचता, देखे  दे कर  ध्यान।। 7।।

गोपन रखना है कठिन, परिवर्तित यह चाल।
बिन बोले ही व्यक्त है, दिल का पूरा हाल।। 8।।

वीतराग को त्याग कर, जीवन हुआ सप्रीत।
कहां जाऊं अब छोड़ कर, तेरे दर को मीत।। 9।।

नदी थिरती घाट पर, थिरके जल की धार।
प्रेम-नाव पर बैठ का, आ पहुंचो इस पार।। 10।।

करो दस्तखत द्वार पर, हल्दी से दो छाप।
शेष रसम हो जाएगी, पल में अपने-आप।। 11।।

काग़ज़, कलम, दवात का आज नहीं कुछ काम।
संकेतों  में  व्यक्त है,  मन  की  चाह तमाम।। 12।।

मैं जो मुक्त उड़ान हूं, तुम विस्तृत आकाश।
तुम पर आ कर ख़त्म है, मेरी सकल तलाश।। 13।।

थिगड़े  वाली  चूनरी, ओढ़े  बैठी  हीर।
फटे दुशाले में बंधी,  रांझे की तक़दीर।। 14।।

मिला मेघ था यक्ष को, दूत बनाने हेतु।
इस युग में पाना कठिन, सम्वादों का सेतु।। 15।।

तेरे-मेरे बीच की  दूरी,  सौ-सौ  मील।
फिर भी किरणें हैं यहां, जले वहां कंदील।। 16 ।।

बिना मिलाए मिल गई, दो हाथों की रेख।
तेरा-मेरा  साथ है,  जीवन भर का लेख।। 17।।

छंद सुवासित हो गए और रसीले गीत।
इसी तरह मधुमय रहे, तेरी-मेरी  प्रीत।। 18।।

दरपन ले कर हाथ में, देखी है छवि रोज।
फिर भी लगता है यही, आज हुई है खोज।। 19।।

मेरी  अांखों  से  बही,  भीगे  तेरे   गाल।
अश्रु-धार करने लगी, ऐसे विकट कमाल।। 20।।

तुम सागर-तट पर रहो, या बैठो मरु-धार।
नहीं घटेगा देखना,   मन से मन का प्यार।। 21।।

मानव नश्वर हो भले, किन्तु  अनश्वर आग।
देह मिटे,  मिटती रहे,  रहे  प्रेम औ राग।। 22।।


गुरु के  आगे   लघु रहे,  दोहे की  ये रीत।
वैसे ही  सामर्थ्य  संग, बसे  हृदय में प्रीत।। 23।।

‘शरद’ ज़िन्दगी मांगती, बस इतना अधिकार।
जब तक ये सांसे चलें, मिले सदा ही प्यार।। 24।।

दीप्त हुई है चांदनी, खिला चमेली फूल।
झरबेरी  रेशम हुई,  मखमल हुआ बबूल।। 25।।

रची हथेली पर हिना, माहुर  दहके  पैर।
अब तो हो जाए सगा, कल तक था जो गैर।। 26।।

संबंधों की भीत पर,  एक  सातिया और।
बहकी-बहकी भावना, पा  जाएगी  ठौर।। 27।।

सात जनम यायावरी, बनी  रही  जो चाह।
तेरे कांधे सिर टिका, मानो  मिली  पनाह।। 28।।

सच कहना! क्या थी नहीं, प्रणयबद्ध ये चाल।
जानबूझ  कर  छोड़ना, अपना  प्रिय  रूमाल।। 29।।

‘रवि वर्मा’ के चित्र-सी, खिचीं हुई है  रेख।
मौसम जिसको देख कर, लिखे प्रेम के लेख।। 30।।

‘शरद’ पलाशी चाहतें,  फूले-फलें जरूर।
उनमें दूरी न रहे,  जो अब तक थे दूर ।। 31।।

दो नयनों का लेख है, कर लो खुद अनुवाद।
बोल उठी जब देह-लिपि, करना क्या सम्वाद।। 32।।

सुबह पूर्व में लालिमा, ज्यों सेंदुर का रूप।
शगुन लिखे फिर द्वार पर नई-नवेली धूप।। 33।।

अमराई की बौर से,  हुआ  सुवासित  नेह।
खिली पंखुरी की तरह, समिटी थी जो देह।। 34।।

रखता है मन रोज ही, कच्चा आंगन लीप।
तुम भी रख जाओ तनिक अपनेपन का दीप।। 35।।

कोयल बोले तो लगे, कूक रही इक नाम।
मेरा प्रियतम है वही, द्वापर  वाला  श्याम।। 36।।

मन के  हारे  हार है,  मन के  जीते जीत।
करो  मंत्र स्वीकार यह,  मुस्कायेगी  प्रीत।। 37।। 

‘शरद’ ज़िन्दगी के लिए,  इतना  है पर्याप्त।
इस दुनिया में हर तरफ, रहे प्रेम ही व्याप्त।। 38।।

सभी रहें सुख से यहां, सब में हो अनुराग।
कलुष नहीं डाले कभी, मन-चादर पे दाग।। 39।।

‘शरद’ आपसी प्रेम की कथा न होवे शेष।
रत्ती भर छूटे नहीं,  इस  धरती पर द्वेष।। 40।।
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10 October, 2018

तुम्हारी याद - डॉ शरद सिंह

Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh

तुम्हारी याद
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कल मुझे रास्ते में
रखा मिला सूरज
उठा लिया मैंने भी उसे
यूं ही
अनायास
जैसे तुम्हारी याद
उठा लेती हूंं मैं
अपनी पलकों में
एक गर्म, उबलती बूंद की तरह।
- डॉ शरद सिंह


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09 October, 2018

ओ मेरे हर्क्युलिस ! - डॉ शरद सिंह

Poetry of Dr Sharad Singh
ओ मेरे हर्क्युलिस !
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तुम हो सकते हो
हर्क्युलिस से भी
अधिक ताक़तवर
उठा सकते हो सूरज
अपनी भुजाओं में
पर, क्या चल सकते हो मेरे साथ
एक कस्बे के
भरे चौराहे में
मेरा माथा चूम कर
मेरी कलाई थाम कर ...
- डॉ शरद सिंह


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खो गया है वो - डॉ शरद सिंह

Poetry of Dr Sharad Singh
खो गया है वो
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धूप का फूल
आज पाया जो
शाम आई लो,
खो गया है वो
दिल ने झेला था
दर्द को बेशक़
आज अश्क़ों में
ढल के आया तो ...
- डॉ शरद सिंह


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ठहरो न ! - डॉ शरद सिंह

Poetry of Dr Sharad Singh

ठहरो न !
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सूरज
रोज आते हो सुबह
चले जाते हो

शाम को
ये मेरा
घर है
दफ़्तर नहीं
किसी रोज़ ठहरो न
बातें करेंगे
हम रात भर...
- डॉ शरद सिंह

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कुछ यादें - डॉ शरद सिंह

Poetry of Dr Sharad Singh
कुछ यादें
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आज धूप ने
झांक कर
खिड़की से
पूछा
मेरा हाल
और
कुछ यादें
फुदक कर आ गईं
सीखचों के भीतर
जिनमें
तुम थे भी,
नहीं भी...
- डॉ शरद सिंह

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