12 September, 2017

परिष्कृत प्रेम ... डॉ शरद सिंह

Poetry of Dr (Miss) Sharad Singh
परिष्कृत प्रेम
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मन
बांचता है जब
प्रेम की ऋग्वेदी ऋचाएं
खुल जाते हैं दस मण्डलों से
दस द्वार
या फिर खिलखिला उठती हैं
चौंसठ अध्यायों सी चौंसठ कलाएं

यजुर्वेदी तन होना चाहता है श्रमशील
पर हो नहीं पाता

सामवेदी तरंगे
बन कर राग-रागिनियां फूट पड़ती हैं
एक-एक शिराओं से

सांसारिक कर्मकाण्डों का अथर्ववेद
गढ़ता हो भले ही नई परिभाषा
किन्तु
वैदिक अनुभूतियां नाच उठती हैं पूरे वेग से
और तभी
प्रेम हो जाता है परिष्कृत।

- डॉ. शरद सिंह

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